

महिला हिंसा पर रोष के बाद फैलते है कुछ मिथक
जब भी कभी महिलाओं पर किये जाने वाले अपराधों के खिलाफ रोष या विद्रोह है या महिला मुद्दों पर बातचीत छिड़ती है तब तब वाद विवाद छिड़ता है। महिलाओं पर होने वाले अपराधों का कारण क्या है और इनका हल कैसे कैसे निकाला जा सकता है इसपर अलग अलग विचार आने लगते है। दुःखद रूप से इन मुद्दों पर सच या तथ्यों से ज्यादा झूठ व मिथ्या ज्यादा फैलते हैं। अभी कोलकाता, मुजफ्फरपुर, देहरादून आदि में हुए बलात्कार व हत्या की घटनाओं के बाद से भी कुछ मिथ्या फैलाये जा रहे हैं। जैसे कि "लड़कियों की नाईट ड्यूटी या इवनिंग क्लास लगाना सही नहीं", "ताली दो हाथ से बजती है इसलिए बलात्कार में लड़की की मर्ज़ी शामिल होती है", "अगर बलात्कार से बचा नहीं जा सकता तो लड़कियों को शांत रहना चाहिए ताकि वो अधिक हिंसा या शारीरिक नुकसान या मृत्यु से बच सके", "कई लड़कियाँ बलात्कार को एन्जॉय करती है" वगैरह वगैरह और एक कथन जो सबसे ज्यादा नज़र में आया वो है कि "पुरुषों को बलात्कार करने की बजाय सैक्स वर्कर के पास जाना चाहिए"। ऐसा कहकर सेक्स वर्क इंडस्ट्री को बलात्कार के एक विकल्प के रूप से प्रचारित किया जाता है। सेक्स वर्क इंडस्ट्री के होने से बलात्कार कम होते हैं या फिर पुरुषों को अगर पैसे देकर सैक्स पाने की सुविधा उपलब्ध हों तो वो बलात्कार नहीं करेंगे इस तरह के तर्क- कुतर्क प्रचारित किए जाते हैं। यही विचार गंगूबाई काठियावाड़ी फिल्म में भी दिखाया गया है। इस बात में कितनी सच्चाई है और क्या ये कथन आपत्तिजनक है? अगर है तो क्यों? इस पर इस लेख में प्रकाश डालेंगे।
क्या बलात्कार का कारण सिर्फ यौन इच्छाओं का ना पूरा होना है?
बलात्कारी बलात्कार क्यों करते है उसके पीछे उनकी सोच क्या होती है इस पर कुछ शोध किये गए है। अगर हम इस पर कुछ पढ़े-जाने तो पायेंगे कि बलात्कार का लेना देना सिर्फ यौनिक इच्छा से नहीं बल्कि मर्दानगी के शक्ति प्रदर्शन, हिंसक मानसिकता व प्रवत्ति, स्त्रियों के प्रति नियंत्रण का भाव, पुरुष प्रधानता, स्त्री पुरुष असामनता इत्यादि से है। 2012 में हुए निर्भया केस के बाद एक भारतीय महिला मधुमिता पांडेय ने लगभग 100 पुरुषों के इंटरव्यू लिए जिन्हें कोर्ट में बलात्कार का दोषी करार किया गया था। उस रिसर्च में भी कुछ यही निष्कर्ष निकल कर आये थे। इस तरह के शोध विदेशों में भी हुए है। रिसर्च साबित कर चुके है कि पुरुष इसलिए बलात्कार नहीं करते क्यूंकि उनकी यौनिक इच्छाएं पूरी नहीं होती बल्कि इसलिए बलात्कार करते है क्यूंकि उनके दिलो दिमाग में हिंसा हावी होती है, उनके दिलों दिमाग में मर्दानगी का हिंसक प्रदर्शन करने की प्रवत्ति होती है, स्त्री या अपने से कमज़ोर व्यक्ति पर शक्ति प्रदर्शन, उनको हरा कर दिखाने, नीचा दिखाने, सबक सिखाने इत्यादि वाली मानसिकता हावी होती है।
गौर करें कि इस दौर में मुद्दा सिर्फ बलात्कार का नहीं है, बल्कि हिंसक बलात्कार व उसके साथ हत्या का है। उसके साथ साथ महिलाओं पर रोज़ाना होने वाले हिंसक अपराध जैसे कि एसिड फेंकना का भी है। घटनाओं के विवरण जैसे कि लगातार चाकू घोपना, काट फाड़ देना, शरीर के टुकड़े कर देना, जला देना आदि से समझ आता है कि दोषी व्यक्ति अपनी यौन इच्छा पूरी करने नहीं बल्कि अपनी हिंसक प्रवत्ति का प्रदर्शन करने के लिए वो अपराध को अंजाम दे रहा हो। अतः ये कहना कि बलात्कार का कारण केवल यौन इच्छा है मामले की सच्चाई और गंभीरता को नज़रअंदाज़ करना है।
प्रोस्टीटूशन इंडस्ट्री, स्त्रियों का वस्तुकरण व उनपर संस्थागत हिंसा
प्रोस्टीटूशन इंडस्ट्री खुद में स्त्रियों के वस्तुकरण की व्यवस्था है। पुरुष खरीददार है और स्त्री खरीदने की वस्तु। पैसा देकर सैक्स पाना मतलब स्त्री को एक खरीदे जाने वाली वस्तु बना देना। स्त्री इंसान से एक वस्तु बना दी जाती है इस इंडस्ट्री में, लेन देन की वस्तु। पुरुष पैसे से मनचाही स्त्री को कुछ वक़्त के लिए खरीदते है जिसके साथ वो कैसा भी व्यवहार कर सकते है। उस स्त्री की मर्ज़ी या ख़ुशी मायने नहीं रखती क्यूंकि उस पुरुष ने उसे खरीदा हुआ है। स्त्री के पास "ना" कहने का विकल्प नहीं रह जाता क्यूंकि पुरुष उसका ग्राहक होता है।
प्रोस्टीटूशन इंडस्ट्री में अक्सर गरीब, अनाथ, शोषित जातियों व अन्य पिछड़े वर्गों की लड़कियों को छ्ल-कपट, झूठ-फरेब व मजबूरी का फायदा उठाकर लाया जाता है जहाँ एक बार फसने के बाद निकलने के विक्लप नहीं होते और अगर विकल्प मिले तो समाज में इज़्ज़त से जीवन यापन करने के रस्ते नहीं होते। प्रोस्टीटूशन इंडस्ट्री स्त्रियों के लिए मर्ज़ी या ख़ुशी का काम से ज्यादा मजबूरी, विकल्प का आभाव या रोज़ी रोटी का संघर्ष है।
प्रोस्टीटूशन इंडस्ट्री स्त्रियों की सहमति व चुनने के अधिकार को नकारता है, उनका वस्तुकरण करता है, उनकी शारीरिक स्वायत्तता का उलंघन करता है और ये सब बलात्कारी मानसिकता का ही तो हिस्सा है। प्रोस्टीटूशन व्यवसाय इस मानसिकता का हिस्सा है कि स्त्री भोग की वस्तु है इसलिए ये इंडस्ट्री बलात्कारी मानसिकता को बढ़ावा देती है नाकि बलात्कार नियंत्रण करने में योगदान।
प्रोस्टीटूशन इंडस्ट्री में सैक्स वर्कर के साथ काम के दौरान होने वाली हिंसा एक अहम समस्या है जिसपर ना तो बातचीत होती है, ना ही इस हिंसा को अहमियत दी जाती है। सैक्स वर्कर के साथ उनके ग्राहक मौखिक, शारीरिक व यौनिक हिंसा करते है और क्यूंकि उस हिंसा की कोई जवाबदेही या सुनवाई नहीं होती इसलिए ग्राहक सैक्स वर्कर के साथ कैसी भी हिसंक कृत्य करके बच सकते है जिसकी वजह से सैक्स वर्कर और भी अधिक हिंसा का शिकार बनती है। कहने का तात्पर्य ये है कि प्रोस्टीटूशन व्यवसाय अपने आप में संस्थागत हिंसा की व्यवस्था है।
“वैश्याओं के पास जाइये, समाज की पढ़ी लिखी लड़कियों को छोड़ दीजिये।“
वैश्याओं को बाकि महिलाओं से अलग करके देखना क्या सही है? क्या गरीब वर्ग की या फिर अशिक्षित लड़कियों का बलात्कार कम मायने रखता है? ये किस तरह की बेतुकी तुलना है? क्या इस सभ्य कहे जाने वाले समाज में रहने वाली महिलाओं की जान से सैक्स वर्कर की जान की कीमत कम आंकी जानी चाहिए? नहीं, बिलकुल नहीं। क्यों प्रोस्टीटूशन इंडस्ट्री में महिलाओं पर होने वाली हिंसा मायने नहीं रखती? बलात्कारी पुरुष वैश्याओं पर उतनी हिंसा करें तो क्या ठीक है? क्या वैश्याओं पर होने वाली हिंसा या जबरदस्ती "हिंसा" नहीं मानी जानी चाहिए? हिंसा तो हिंसा है। वैश्यायें भी उतनी ही इंसान है जितनी कोई भी आम महिला है। और तो और बलात्कार रोकने का हल महिलाओं के एक वर्ग पर संस्थागत हिंसा कैसे हो सकती है?
पुरुष प्रधानता के मिथक हमें असली कारण और उसके हल तक पहुँचने से रोकते है
बलात्कार और प्रोस्टीटूशन दोनों ही स्त्रियों पर हिंसा का हिस्सा है। दोनों ही स्त्री का वस्तुकरण है। दोनों ही स्त्री पर नियंत्रण का हिस्सा है। अगर सच में प्रोस्टीटूशन इंडस्ट्री के होने से बलात्कार कम होते तो पैसे से सक्षम पुरुष बलात्कार नहीं कर रहे होते लेकिन ऐसा है नहीं। और ना ही उन इलाकों में बलात्कार हो रहे होते जहाँ इस इंडस्ट्री की पकड़ ज्यादा है लेकिन ऐसा भी है नहीं।
ऐसा कहना कि “अगर पुरुषों को सैक्स वर्कर के पास जाने को नहीं मिल रहा तो बेचारे बलात्कार तो करेंगे ही और अगर बलात्कार करने को नहीं मिल रहा तो उन्हें सैक्स वर्कर के पास चले जाना चाहिए”, ऐसे कथन से हम पुरुष के खुद को कंट्रोल ना करने की प्रवत्ति को सही ठहरा रहे है। ऐसा कहकर हम जस्टिफाई कर रहे है कि पुरुष तो कहीं ना कहीं हिंसा प्रदर्शन करेंगे ही। चाहे वो सड़क पर अनजान लड़की के साथ करे या फिर सैक्स वर्कर के साथ। हम बलात्कारी पुरुषों की हिंसक मानसिकता व प्रवत्ति को सही ठहरा रहे है नाकि उसका इलाज खोज रहे हैं। इसके साथ ही ऐसा कहकर हम बलात्कारी पुरुषों के गुनाह को कम दिखा रहे है, उनका बचाव कर रहे है। हम कहना चाह रहे है कि अगर पुरुषों को कहीं ना कहीं से सैक्स नहीं मिलेगा तो उनका बलात्कार करना जायज़ है। हम वही Men will be Men वाले पुरूष प्रधानता के मिथक का साथ दे रहे हैं।
हमें कल्पना और कोशिश तो ऐसे समाज की करनी चाहिए जहाँ किसी भी व्यक्ति के मन में हिंसा का भाव ना पनपे, जहाँ हर व्यक्ति "सहमति/कंसेंट" की परिभाषा समझे। कोशिश तो ऐसे समाज की करनी चाहिए जहाँ ना बलात्कार हो, ना प्रोस्टीटूशन। संघर्ष तो पुरुष प्रधानता, मर्दानगी के शक्ति प्रदर्शन, हिंसक मानसिकता व प्रवत्ति, स्त्रियों के प्रति नियंत्रण का भाव, स्त्री पुरुष असामनता इन सबके खिलाफ करना चाहिए ताकि सिर्फ बलात्कार ही नहीं स्त्रियों अपर होने वाली सभी प्रकार की हिंसा को ख़तम कर सकें। लेकिन हम उलझें है पुरुष प्रधानता के मिथकों में जो हमें स्त्री वर्ग पर हिंसा की असली वजह व हल से दूर ले जाते हैं।