

राजनीति में रणनीति ही सब कुछ है। जनता की नब्ज पहचानकर उसके मुद्दों पर बात करना चुनावी जीत का मूलमंत्र होता है, लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए अदाणी का मुद्दा मानो एक ऐसा जुनून बन गया है, जो हर चुनाव में उन्हें नुकसान ही पहुंचा रहा है। हाल ही में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मात्र 15 सीटों तक सिमटते हुए देखना यही दर्शाता है। यह सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी वाकई आइंस्टीन की उस परिभाषा पर खरे उतरते हैं, जिसमें बार-बार वही गलती दोहराना और अलग नतीजे की उम्मीद करना ‘पागलपन’ कहलाता है।
अदाणी पर हमला : जनता के मुद्दों से दूर होती कांग्रेस
पिछले तीन सालों में, खासकर इस साल की शुरुआत में आई हिंडनबर्ग रिपोर्ट विवाद के बाद, राहुल गांधी ने उद्योगपति गौतम अदाणी पर जमकर निशाना साधा। उन्होंने इसे बीजेपी सरकार की "क्रोनी कैपिटलिज्म" यानी पूंजीवादी मिलीभगत का प्रतीक बताया, लेकिन यह मुद्दा आम जनता के लिए खास महत्व नहीं रखता।
जनता की असली चिंताएं जैसे महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, और किसानों की समस्याएं हैं। राहुल गांधी का अदाणी पर ध्यान केंद्रित करना इन वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने जैसा लगता है। इससे कांग्रेस उन लोगों से और दूर हो रही है, जिनका भरोसा वह जीतने की कोशिश कर रही है।
राहुल गांधी के नेतृत्व में हार का सिलसिला
राहुल गांधी का नेतृत्व कांग्रेस के लिए भारी पड़ता दिख रहा है। 2013 में पार्टी का नेतृत्व संभालने के बाद से, राहुल गांधी ने तीन लोकसभा चुनावों (2014, 2019 और 2024) में लगातार हार देखी। पार्टी का प्रदर्शन ऐतिहासिक रूप से निम्नतम स्तर पर पहुंच गया।
राज्यों में भी कांग्रेस अपने पुराने गढ़ खोती जा रही है। महाराष्ट्र, जहां कांग्रेस कभी सत्ता का केंद्र थी, अब उसके लिए लगभग अप्रासंगिक हो गया है। झारखंड जैसे राज्यों में भी कांग्रेस सहयोगी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के पीछे छुपी नजर आती है।
राहुल गांधी बार-बार भ्रष्टाचार और नैतिकता की लड़ाई को चुनावी मुद्दा बनाते हैं, लेकिन वे जमीन से जुड़े मुद्दों पर बात करने में विफल रहे हैं। इसके विपरीत, बीजेपी ने अपने विकास और डायरेक्ट बेनिफिट योजनाओं (जैसे मुफ्त गैस सिलेंडर, मकान और नकद सहायता) के जरिए जनता का भरोसा जीता है।
महाराष्ट्र से सबक लेने की जरूरत
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए चेतावनी होनी चाहिए थी, लेकिन पार्टी ने अपनी रणनीति में कोई सुधार नहीं किया। एनसीपी और शिवसेना (यूबीटी) के साथ गठबंधन के बावजूद कांग्रेस राज्य में जनता को अपनी ओर करने में नाकाम रही।
कांग्रेस का अदाणी विरोधी अभियान महाराष्ट्र के किसानों की समस्याओं और शहरी बुनियादी ढांचे के मुद्दों पर फोकस करने में नाकाफी साबित हुआ। दूसरी तरफ, बीजेपी ने विकास, स्थिरता और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों पर प्रचार किया, जिसने कांग्रेस की बिखरी हुई रणनीति को फिर से पराजित कर दिया।
अदाणी पर क्यों अड़े हैं राहुल गांधी?
राहुल गांधी शायद यह मानते हैं कि क्रोनी कैपिटलिज्म को उजागर करके वे भाजपा की छवि को नुकसान पहुंचा सकते हैं, लेकिन वे जनता की व्यावहारिकता को कम आंक रहे हैं। भारतीय मतदाता स्थिरता और सीधे लाभ (जैसे सब्सिडी और रोजगार) को ज्यादा महत्व देते हैं।
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राहुल का लगातार अदाणी पर हमला नया होने के बजाय दोहराव भरा लगता है। नतीजतन, जनता का ध्यान इस पर नहीं टिकता। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि राहुल गांधी अपनी छवि एक ‘सिद्धांतवादी नेता’ के रूप में बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र में चुनावी सफलता ही नेतृत्व की कसौटी होती है।
कांग्रेस के लिए आगे का रास्ता
25 नवंबर से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में राहुल गांधी के पास मौका है कि वे अपनी रणनीति बदलें। उन्हें महंगाई, स्वास्थ्य और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर बात करनी चाहिए, लेकिन उनकी अब तक की शैली को देखते हुए ऐसा लगता है कि वे फिर से अदाणी पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे। कांग्रेस को जमीनी स्तर पर अपनी संगठन क्षमता मजबूत करनी होगी, क्षेत्रीय नेताओं को अधिक अधिकार देना होगा और जनता के रोजमर्रा के मुद्दों को प्राथमिकता देनी होगी।
क्या राहुल गांधी बदलेंगे अपनी राह?
अगर राहुल गांधी कांग्रेस को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, तो उन्हें जनता से जुड़ाव बढ़ाने वाले मुद्दों पर फोकस करना होगा। महंगाई कम करने, रोजगार सृजित करने और बेहतर सार्वजनिक सेवाएं उपलब्ध कराने जैसे विषयों पर ध्यान देना कांग्रेस को अधिक प्रभावी बना सकता है।
राजनीति आखिरकार जनता की भावनाओं और विश्वास का खेल है। राहुल गांधी के लिए यही समय है कि वे अपनी राजनीतिक रणनीति को व्यावहारिक बनाएं। सवाल है, क्या वे ऐसा करेंगे या फिर वही पुरानी गलतियां दोहराते रहेंगे? फिलहाल, हालात ज्यादा उत्साहजनक नहीं दिखते।