

अफ्रीकन इतिहासकार चिनुआ अचेबे ने कहा है कि "जब तक शेर लिखना नहीं सीखता, हर कहानी शिकारी की महिमा गाएगी।
इटावा की घटना ने पूरे समाज को झकझोर कर रखा दिया साथ ही हिंदू संप्रदाय से आने वाले लोगों का भी भयंकर जातिगत भेदभाव की ओर ध्यान आकर्षित किया। NCRB के आंकड़े कहते हैं कि 2022 में दलितों के ऊपर 13.1 प्रतिशत वहीं आदिवासियों के ऊपर 14.3 % 2021 के मुक़ाबले जातिगत उत्पीड़न के मामले बढ़े हैं।
छुआछूत और उच नीच के खिलाफ बहुत से आंदोलन चले साहित्य में दलित साहित्य की एक अलग ही धारा लिखी गई जिसमें वंचित वर्गों के उस इतिहास की ओर भी लोगों का, अकादमियों का ध्यानाकर्षण कराया गया जो सदियों से शोषित थीं। उदाहरण स्वरूप ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन, प्रोफेसर तुलसीराम की मुर्दाहीया और मणिकर्णिका, अदम गोंडवी की आओ ले चले तुम्हें चमारों की गली, प्रेमचंद का ठाकुर का कुआं आदि बहुत सी लेखनी है साथ ही वही फिल्मी जगत में भी जाति उत्पीड़न और भेदभाव को दामूल, मृत्युदंड सरीके कई फिल्मों में दिखाया गया है, मृत्यु दंड में तो महिलाओं का भी एस्पेक्ट है, समाज में व्याप्त ये कुरीतिया हजारों वर्षों से चली आ रही हैं, मनुष्य को मनुष्य ना समझने देने वाली मानसिकता आज भी जीवित है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बस्तियां बटी हुई है, कुरीतियों के हिसाब से शोषण, गरीब कमजोर लोगों को दबाना लगा हुआ है बस उसका स्वरूप बदल गया है। जो सामाजिक व्यवस्था बनी है उसी में व्यक्ति रहता है, कईयों ने तो इस ऊंच नीच के विरोध में धर्म भी त्याग दिया।
हमें इसे समझना होगा कि आज भी विश्वविद्यालय में छात्रों का एक बड़ा समूह होता है जो अपने आप में अलग-थलग रहता है, लोगों से कटा रहता है उसके मूल में जाएंगे तो पता चलेगा मुख्य कारण वह कहां से आता है, उसकी पृष्ठभूमि क्या है, ऐसे में विश्वविद्यालय में अन्य लोगों की जिम्मेदारी होती है उनको सामान्य सा फील कराए, बराबरी महसूस कराए न की हजारों वर्षों से चली आ रही जाति प्रथा को टूल बनाकर अलग-थलग रखें। कोई जन्म से शूद्र परिवार में पैदा हो गया उसकी क्या गलती, सामाजिक ताना-बाना उसी के ऊपर थोपा गया है, ऊंच नीच वही झेले, कहां का नियम है भाई? मैं अभी हाल की इटावा की घटना देखा उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। आप किसी को जाति के आधार पर हुमिलिएट नहीं कर सकते, देश में संविधान है कानून का शासन है इधर तालिबानी सरकार तो चल नहीं रही।
जब मामला प्रकाश में आया तो लोगों ने प्रतिक्रिया देना शुरू की समाज का बहुत बड़ा वर्ग कथा वाचक के पक्ष में खड़ा हुआ उसमें सर्व समाज के लोग थे, इस मामले में जातिगत भेदभाव बढ़ता देख ( हिंदू धर्म में इन जातियों की यही वास्तविक स्थिति है कभी सामने आती है तो कभी नहीं आती है) डैमेज कंट्रोल को रोकने के लिए एक अलग नॉरेटिव छेड़खानी का चलाया जाता है, ताकि मामला जातिगत भेदभाव का ना लगे, महिला के नाम पर मोरल विक्ट्री ली जा सके। इटावा की घटना ने सिर्फ उत्तर प्रदेश के लोगों को ही नहीं झकझोरा बल्कि सीधी इसकी तरंग संघ मुख्यालय नागपुर पहुंची और उनके फेक एजेंडा हिंदू राष्ट्र बनाने से टकराई, वहीं से डैमेज कंट्रोल का आईडिया चला, जहां से दो दिन बाद छेड़खानी की घटना प्रकाश में आई।
ये आरएसएस का फेक एजेंडा है हिंदू राष्ट्र बनाने वाला, सवाल तो उनसे भी है कि आपके हिंदू राष्ट्र में दलित, आदिवासी, पिछड़ों की क्या स्थिति होगी? खैर इस मुद्दे पर बाद में बात करेंगे।
इतना देख सोशल मीडिया पर बैठे संघी विचारधारा के स्वघोषित समाज के नेता लोग गाली गलौज पर उतर आए और महिला सम्मान की दुहाई देने लगे और महिला सम्मान की दुहाई इस तरीके से दे रहे थे कि अगले व्यक्ति के, अगले समाज के मां बहन बेटी को फूहड़ गाली देने से नहीं थक रहे थे। गाली गलौज का सिलसिला अभी भी स्वघोषित समाज के नेताओं के द्वारा जारी है। (नोट: संघी विचार के नेता किसी भी पार्टी में पाए जा सकते हैं)
जो गलत है उसको गलत कहना सीखना चाहिए, इसका उदाहरण गौतम बुद्ध है, राहुल सांकृत्यायन है, पण्डित जवाहरलाल नेहरू हैं, आज के समय में राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक बड़ी मुहिम 'जातिगत जनगणना' के रूप में राहुल गांधी खुद बढ़-चढ़कर के उठा रहे हैं, पता करिए यह लोग किन समाज से आते हैं किन बिरादरी से आते हैं।
सच तो यह है की जाति भारत में एक सच्चाई है जो इटावा में दिखी। मैं फिर से बोल रहा संघीयों का जो एजेंडा है हिंदू राष्ट्र बनाने का इटावा की घटना ने एक गहरा आघात पहुंचाया और समाज के ऊपर डाली गई चादर को उसने फिर से बेनकाब किया, इटावा की घटना के बाद से संघीयों का नॉरेटिव है की "छेड़खानी हुई थी" इसमें उनके जातिगत भेदभाव की कलई खुल गई, आज भी जाति के नाम पर समाज ऐसे ही काम करता है हर स्तर पर।
हिंदू संप्रदाय की जाति संरचना में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र हैं, अहीर कम्युनिटी जो कि पिछड़े समाज की जाति है उसके साथ ऐसा कर सकते हैं वह भी 2025 में, तो सोचिए इनके द्वारा बांटी गई जाति में जिनको इन्होंने एकदम नीचे रखा हुआ है, वह कैसे इन पापों को झेलता होगा।
इन संघीयों के ट्रैप में ना आइए, जो गलत हुआ, जो गलत है इसकी पुनरावृत्ति ना हो, आपस में कटुता वैमनस्यता ना हो बल्कि प्रेम रहे, करुणा रहे, जो हजारों वर्षों से हाशिए पर रखे गए हैं उनका बुरा अनुभव, गम एकाएक खत्म नहीं होगा, ऐसे में सर्व समाज को इटावा जैसी घटना की निंदा करनी चाहिए उसकी भविष्य में पुनरावृत्ति ना हो इसके लिए लड़ाई लड़नी चाहिए।
इस घटना को देखने का यह नजरिया मेरा अपना व्यक्तिगत है इसी को महान इतिहासकार नीत्शे के शब्दों में कहा जाए तो "there is no eternal facts, as there are no absolute truth" कहेंगे।
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धन्यवाद
अखिलेश यादव (लेखक सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज़, जेएनयू से रिसर्च स्कॉलर हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के उपाध्यक्ष रह चुके हैं।)